Tuesday, 29 April 2014

गंदगी में जिंदगी और अखबार में खबर


...बात तब की है जब मैं अमर उजाला अलीगढ़ में काम करता था। घर के पास ही एक पोखर थी, जिसे मोहल्ले के लोग कूड़ेदान की तरह इस्तेमाल कर लेते थे। इस कारण पोखर किनारे एक हिस्से पर कूड़े का ढेर लगा रहता था। लोगों की बताई बातों के आधार पर मेरे मन में कहीं यह धारणा बैठी हुई थी कि कूड़े में प्लास्टिक आदि बीनने वाले लोग चोरी चकारी कर लेते हैं। दिन में यह मकानों की टोह लेते हैं।
मई जून की एक वीरान दोपहर में उसी कू़ड़े के ढेर पर तीन किशोर प्लास्टिक कचरा बीन कर अपने बड़े-बड़े थैलों में डाल रहे थे। मैं घर पर दोपहर का खाना खाने आया था। मन में बनी धारणा के अनुरूप और मकान की सुरक्षा का ख्याल करते हुए हिकारत भरी नजरों से उन कूड़ा बीनने वाले लड़कों को देखा। भद्दे लहजे में उन्हें फटकारते हुए एक सांस में दो तीन बार वहां से तुरन्त जाने के लिए कह दिया।...इसके एवज में एक लड़के ने बड़े बेहद शिष्टता से (जैसी किसी कुलीन परिवार में देखने को मिलती है)कहा....नाराज न हों भाई साहब हम जा रहे हैं। इस लहजे ने मुझे सोचने को थोड़ा मजबूर किया। एक डेढ़ मिनट कशमकश में गुजारने के बाद मैंने थोड़ा दौड़कर उसे रोका। थोड़ा डरते हुए वह रुक गया और प्रश्नवाचक निगाहों से मेरी और देखने लगा। मैनें सहज माहौल बनाने और उसका विश्वास जीतने की कोशिश करते हुए पूछा...क्या करते हो। उसने कहा..कुछ नहीं बस यही करते हैं। खैर..पांच मिनट में मैने स्थित सहज कर ली। इसके बाद जो उसने बताया उससे मेरे मन की धारणा हमेशा के लिए बदल गई।
लब्बो लुबाब यह था... कूड़ा बीनने वाले 16 वर्षीय जगन के परिवार में सात लोग थे। सभी कूड़े के ढेरों से प्लास्टिक बीनने का काम करते थे। डेढ़ रुपये प्रति किलो की दर से वह इसे अलीगढ़ के भुजपुरा में एक गोदाम पर दे देते थे। गोदाम से यह प्लास्टिक ट्रकों में लद कर गाजियाबाद और फरीदाबाद फैक्ट्रियों में जाती थी। वहां पर कचरे की श्रेणीवद्ध छंटाई होती थी। फैक्ट्रियों में इसके छोटे-छोटे दाने बनते थे। जो पूरे देश में सप्लाई होते थे। इन्हीं दानों से फिर से प्लास्टिक के नए आयटम बनते थे।
....जगन ने बताया था कि एक व्यक्ति दिन में 45 से 60 रुपये तक का काम कर लेता है।(यह मूल्य सन 2004 का है)इस प्रकार
परिवार के सातों सदस्य महीने में 10-12 हजार रुपये तक कमा लेते हैं। सभी के लिए खाना हो जाता है। तंग बस्ती में ही सही सम्मान से रहना हो जाता है। मोहल्ले के ही एक स्कूल में जाता था इसलिए जगन थोड़ा पढ़ना-लिखना भी सीख गया था।
...गंदगी में जिंदगी तलाशने की जगन और उसके परिवार की इस गाथा को मैंने अपनी स्टोरी का विषय बनाया । इसके लिए उस समय अमर उजाला के संपादकीय प्रभारी श्री हेमंत लवानियां जी ने मेरी पीठ थपथपाई। यह मेरे लिए एक बहुत बड़ा पुरस्कार बतौर था। इस खबर के कुछ ही दिनों बाद शहर के तस्वीर महल चौराहे पर एक किशोर भिखारी अपने हाथ पैर पंगु करने का उपक्रम करते हुए पैसा मांगने आया। ....मुझे जगन तस्वीर नजर आई। दिल से आवाज आई दीपक शर्मा अगर तुमने इसे पैसा दे दिया तो जगन जैसे स्वाभिमानी और अत्मसम्मानी लोगों से नजरें कैसे मिलाओगे। तब से मैंने किसी को भी भीख न देने का फैसला किया। इस पर मैं आज तक कायम हूं। बाद में मैंने कई खबरें और लिखीं जिसमें उन लोगों का जिक्र था जो 80 प्रतिशत तक विकलांग और नेत्रहीन होने पर भी प्रोविजन स्टोर या अन्य काम करके स्वावलंबी जीवन बिता रहे थे। ..मुझे जगन जैसों का आत्म सम्मान उन लोगों की सम्पन्नता से बढ़ा लगता है जिनके ऐश्वर्य की इमारत गलत कामों की बुनियाद पर रखी है।
कूड़े 
हाथो को धोया था मैने जिस थैले को फेंक कर
उसी कूड़े के थैले में कुछ तलाश रहा था वो दोनो हाथ डाल कर। 
उम्र करीबन सोलह साल और कद पांच फुट का  
मजबूत कंधो पर झोला टाँगे तीन फुट का। 
आँखो में चमक अँधेरा चीरने वाली 
अपने अरमानो को ढूंढ रहा था हाथ डाल कर



दया भाव से पूछा कोई दूसरा काम क्यूँ नहीं करते 
गहरी नज़रो से मुझे देख वो मुस्कुराया
"साहब किसी भी काम के लिए पैसा चाहिए 
नौकरी के लिए तजुर्बा चाहिएऔर तजुर्बे के लिए नौकरी;
आदमी ईमानदार होना चाहिए और ईमानदारी साबित करने के लिए नौकरी चाहिए।
क्या आप नौकरी दे पाओगे ?"

मै सकपकाया , उठती हीन भावना से घबराया
अकड़ गयी नहीं थी मेरी, कुछ रुपये निकाल लाया।
नोट देख वो बोला , साहब कूड़े में हाथ डाल कमाता हूँ 
किसी के आगे हाथ नहीं फैलाता हूँ।
जमाने में बहुत गम है कंहा तक साथ निभाओगे
मेरे पीछे दस और रहे हैं;
क्या आप उन सब को दे पाओगे ?

आपकी आँखो में सवालात बहुत हैं
इन्हें  भी  फेंक  दो  दिल  हल्का  हो  जायेगा।
मेरे  लिए  कूड़े  से  भी  बदद्तर   हैं
आप  इनके  जवाब  कभी  भी  नहीं  पा  पाओगे  
मेरी  टूटी  हुई  अकड़  सूनी  आँखों  संग  लौटती  है 

अब  मेरी  माँ  थैले  में  कुछ  ना  कुछ  जरुर  रखती  है
वो  रोज  सुबह  हाथ  डाल  मेरे  घर  की  तरफ  देख  मुस्कुराता  है।
एक  अजीब  सी  टीस  मेरे  दिल  में  उठती  है 
ना  जाने  क्यूँ  दिन  भर  उसकी  हंसी  मुझे  चुभती  है...



जागो भारत

- विक्रम सिंह तोमर

कचरा बीनने वालों के लिए मान्यता
हर के कचरे का 20% के प्रबंधन और पुनर्चक्रण उनके महत्वपूर्ण काम के बावजूद दिल्ली के 150,000 कचरा बीनने वालों वैध तरीके से स्वरोजगार होने के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं हैं. भारत उन्हें अपने कठिन काम के काबिल है कि सम्मान देने के लिए एक प्रयास में कचरा बीनने वालों का एक एक अधिकारी रजिस्टर के लिए बुला रहा है संरक्षण.
कम से कम सुविधा मदद के रूप में एक ही समय में प्रदूषण combatting - - पर्यावरण के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है जब पहली ग्रस्त हैं और सबसे बुरा जो लोग संरक्षण भारत में हम दो उद्देश्य है. हम हमें बर्बाद लाने के लिए जो कचरा बीनने वालों का सम्मान, और उन्हें वे कहीं प्राप्त होगा की तुलना में वे इकट्ठा क्या के लिए लगभग तीन गुना अधिक भुगतान यही कारण है. हम स्थानीय समुदायों में सुधार लाने में उसका मुनाफा reinvests जो हमारे जैसे एक छोटे से संगठन, सम्मान और कचरा बीनने वालों का समर्थन कर सकते हैं, तो हर कोई कर सकता है.
एक अधिकारी ने रजिस्टर के बिना, हमेशा जरूरत है कि वे वैधता नहीं मिलता जो कचरा बीनने वालों को हो जाएगा. पेशे से कुछ स्थिरता और संरचना लाना भी वे सुरक्षित और उचित मूल्य के लिए काम कर सकते हैं, जिससे कि वे एकत्र कचरे और कैसे इसे ठीक से संभाल करने के लिए बाजार दर के बारे में, उदाहरण के लिए, कचरा बीनने वालों का समर्थन करने और उन्हें शिक्षित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है.
कचरा बीनने वालों के लिए एक रजिस्टर की शुरूआत महत्वपूर्ण राजनीतिक इच्छाशक्ति का समय लगेगा. एक उचित मजदूरी करने के लिए कचरा बीनने वालों और उनकी सही पहचान करने के लिए दिल्ली की सरकार पर बुला में हमें शामिल होने के लिए धन्यवाद.

आप इस अभियान का समर्थन करना चाहते हैं, कृपया ई मेल पर दिल्ली, श्री मंगत राम सिंघल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए श्रम आयुक्त को संदेश निम्न jlcadmlab@nic.in भारत सरकार के लिए और श्रम और रोजगार मंत्री , पर श्री मल्लिकार्जुन खरगे, mallikarjunkharge@yahoo.in
jlcadmlab@nic.in
प्रिय श्री मंगत राम सिंघल, श्रम आयुक्त - दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र,

मैं कचरा बीनने वालों द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्य स्वरोजगार कचरा बीनने वालों के लिए एक रजिस्टर को शुरू करने से मान्यता प्राप्त होना चाहिए.
आप जानते हैं, शहर के कचरे का 20% के प्रबंधन और पुनर्चक्रण उनके महत्वपूर्ण काम के बावजूद दिल्ली के 150,000 कचरा बीनने वालों वैध तरीके से स्वरोजगार होने के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं हैं. वे अपने कठिन काम के काबिल है कि सम्मान प्राप्त कर सकते हैं तो मैं, कचरा बीनने वालों का एक एक अधिकारी रजिस्टर के लिए संरक्षण भारत की कॉल का समर्थन है.
कम से कम सुविधा मदद के रूप में एक ही समय में प्रदूषण combatting - - पर्यावरण के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है जब पहली ग्रस्त हैं और सबसे बुरा जो लोग भारत दो उद्देश्य है संरक्षण. संरक्षण उन्हें बर्बाद लाने के लिए जो कचरा बीनने वालों का सम्मान करता है, और उन्हें वे कहीं प्राप्त होगा की तुलना में वे इकट्ठा क्या के लिए लगभग तीन गुना अधिक भुगतान करता है यही कारण है. मैं स्थानीय समुदायों में सुधार लाने में उसका मुनाफा reinvests जो संरक्षण भारत, जैसे एक छोटे से संगठन के सम्मान और कचरा बीनने वालों का समर्थन कर सकते हैं, तो हर कोई कर सकता है.
एक अधिकारी ने रजिस्टर के बिना, हमेशा जरूरत है कि वे वैधता के बिना काम कर कचरा बीनने वालों को हो जाएगा. पेशे से कुछ स्थिरता और संरचना लाना वे सुरक्षित और उचित मूल्य के लिए काम कर सकते हैं, जिससे कि वे एकत्र कचरे और कैसे इसे ठीक से संभाल करने के लिए बाजार दर के बारे में, उदाहरण के लिए, कचरा बीनने वालों का समर्थन करने और उन्हें शिक्षित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है.
मैं तुम्हें इस पर ले कि कार्रवाई देखने के लिए तत्पर.

शुभकामनाएं,
Achyut Pathak 
कूड़ा बीनते
अपनी जिंदगी के 30 साल उसने कूड़ा बीनते हुए बिताए थे। बचपन से ही वह अपनी झोपड़ी के आसपास कूड़ा बीनने में अपनी मां की मदद करती थी। इसके बदले उसे मां से प्रशंसा भी मिलती थी। चूंकि वह इसी माहौल में पली-बढ़ी थी, तो उसे लगता था कि उसका जन्म इसीलिए हुआ है और यही उसके जीने का एकमात्र जरिया है। जब तक वह दुनिया की बाकी चीजों को समझ पाती, उसके व्यक्तिगत विकास के लिए देर हो चुकी थी।

उसके परिवार में माता-पिता के अलावा पांच बहनें थीं। जब वह नौ साल की थी, तब उसका परिवार महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित जिले जालना से मुंबई चला आया और कूड़ा बीनकर गुजर-बसर करने लगा। आज मुंबई के चेंबूर इलाके में स्थित रमाबाई अंबेडकर मैटरनिटी होम के एक छोटे-से ऑफिस में बैठी 45 वर्षीय सुशीला साबले घर जाने से पहले अपना काम निपटाने में लगीं दूसरी महिलाओं जैसी ही दिखती हैं। फर्क इतना है कि इस ऑफिस में बैठकर वे परिसर भगिनी विकास संघ का संचालन करती हैं। मुंबई और ठाणे में सक्रिय इस संगठन के साथ 180 स्वसहायता समूह तथा तीन हजार महिलाएं जुड़ी हुई हैं। यहां बैठकर वे कूड़ा बीनने वाली महिलाओं के स्वसहायता समूहों से मिलती हैं और उनकी निजी समस्याएं सुलझाती हैं। यदि ये महिलाएं सुशीला की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखती हैं तो इसकी वजह यह है कि 12 साल पहले तक वे भी कूड़ा बीनने का ही काम करती थीं।

सुशीला के जीवन में नाटकीय बदलाव वर्ष 1998 में आया, जब वे स्त्री मुक्ति संगठन के संपर्क में आईं। यह गैर-सरकारी संगठन सूखे और गीले कूड़े को मूल स्थान पर ही अलग करने के लिए कूड़ा बीनने वाली महिलाओं को स्वसहायता समूहों के रूप में संगठित कर रहा था। सूखे कूड़े को वेंडरों के हाथ बेचा जाता था, जबकि गीले कूड़े को प्राकृतिक खाद में बदला जाता था। संगठन को अनपढ़ सुशीला में नेतृत्व की क्षमता नजर आई और उसे एक स्वसहायता समूह का नेतृत्व करने के लिए तैयार किया गया। 2001 में सुशीला ने कूड़ा बीनने का काम बंद कर दिया और दूसरी महिलाओं के साथ काम करने लगीं। अब यह संगठन मुंबई और ठाणे की स्थानीय निकायों पर बड़ी कंपनियों तथा हाउसिंग सोसाइटीज में जीरो-गार्बेज पॉलिसी लागू करने का दबाव बना रही है।

भारत में कुछेक हाउसिंग सोसाइटीज और बहुराष्ट्रीय संगठनों ने पहले से ही जीरो-गार्बेज पॉलिसी अपना रखी है, लेकिन देश के बाकी हिस्सों में अभी इस दिशा में कदम उठाया जाना बाकी है। सुशीला की इको-फ्रेंडली पहल ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई है और वर्ष 2009 में कोपेनहेगन में हुए गार्बेज वर्कर्स कॉन्फ्रेंस में उन्हें भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया था। यह पहला मौका था, जब उन्होंने पासपोर्ट के लिए आवेदन किया, एयरपोर्ट के अंदर गईं, हवाई जहाज में यात्रा की और सितारा होटल में ठहरीं। 3000 से ज्यादा कचरा प्रबंधन विशेषज्ञों के बीच उन्होंने मराठी में भाषण दिया, जिसका श्रोताओं के लिए अंग्रेजी में अनुवाद किया गया। इसके बाद वे तीन और सम्मेलनों, बीजिंग (२०१०), डरबन (२०११) और रियो डी जेनेरियो (२०१२), में शामिल हुईं, जहां उन्होंने भारत में कचरा-निष्पादन के तरीकों के बारे में बताया। पृथ्वी की हरियाली को बनाए रखने के लिए उन्होंने कचरा निष्पादन के कई नए तरीकों की भी चर्चा की। निजी जीवन में भी सुशीला को काफी संघर्ष करना पड़ा। दो साल बाद ही उनकी शादी टूट गई, क्योंकि उनका पति परिवार के खर्च के लिए एक पैसा नहीं कमाता था। घर में खाने के लिए कुछ नहीं होता था और उन्हें दोबारा कूड़ा बीनने के लिए जाना पड़ा। इसलिए उन्होंने शादी तोड़ दी। घर छोड़ते समय वह छह महीने की गर्भवती थीं, लेकिन गरीबी के बीच उन्हें पति के साथ रहने का कोई कारण नहीं नजर आया। अपने दम पर उन्होंने अपने बेटे को पढ़ाया और उसे मुंबई यूनिवर्सिटी से बैचलर इन मैनेजमेंट स्टडीज की डिग्री दिलाई। आज वह एक निजी कंपनी के लिए काम करता है। सुशीला के जीवन का एकमात्र लक्ष्य कूड़ा बीनने वालों के जीवन को बदलना है।

फंडा यह है कि...

हर कोई फर्श से अर्श पर नहीं पहुंच सकता, लेकिन आत्मविश्वास हो तो इतना तय है कि आप घटिया जीवन जीने को मजबूर नहीं होंगे।

कूड़े के ढेर में कहीं गुम हुईं ये जिंदगियां

शशि भूषन



नई दिल्ली। राजधानी के विभिन्न इलाकों में कूड़ा बीनने वालों को कूड़े के ढेर में अपनी दुनिया खोजते आपने देखा होगा। लेकिन समाज में इन्ही लोगों को अक्सर बेरुखी और शर्मिंदगी से देखा जाता है। हालांकि शायद ही हम ये सोचते हैं कि कूड़ा बीनकर ये लोग अपनी जिंदगी तो चलाते ही हैं साथ ही पर्यावरण के सच्चे दोस्त भी हैं। दिल्ली के शशि भूषन इनको मुख्य धारा में लाने के लिए कई सालों से कोशिश कर रहे हैं।
राजू कूड़ा बीनने का काम करता है पर क्या किसी को उसके नाम या काम के पहचान से मतलब है? राजू भोर होते ही पेट भरने के लिए रेल की पटरियों पर रोज़ दर दर भटकता है। एक ऐसा काम करता है जिसे हर आदमी शक की निगाह से देखता है पर ये नहीं जानता कि ये जो गन्दगी साफ़ कर रहा है यह उसी की फैलाई हुई है।
रेल की पटरियों पर लोगों की फेंकी हुई पन्नी, प्लास्टिक, पानी की बोतल, शीशे की बोतल, कुछ जूठे डब्बे की खोज में रोज़ राजू दर-दर भटकता है। गन्दगी में हाथ डालता है, सांस लेता है। शायद अब तक उसका शरीर बीमारियों का घर भी बन चुका हो पर भूख के लिए दिन रात घूमता है। इस आस में की शायद आज कबाड़ी की दुकान पर ठीक पैसे मिल जायें तो भरपेट खाना खालेगा।
राजू जैसे लाखों लोग हमारे आस पास रहते हैं काम करते हैं पर क्या कभी हमने इनकी तरफ़ इज्ज़त की निगाहों से एक बार भी देखा ये वही लोग है जो हमारे मोहल्ले भर के कूड़े के ढेर को बीनते हैं। पर इस बीच इनको कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है उससे शायद हम में से कोई वाकिफ नहीं है। पर एक शख्स है जिसने दिल्ली के 17,000 कूड़ा बीनने वालों को अपने साथ जोड़ा और उनकी परेशानियों की आवाज़ बना। उनका नाम है शशि भूषन।
जिन लोगों ने पर्यावरण को बचाने के लिए अपने स्वास्थ को दाव पर लगा दिया शशि ने फ़ैसला किया कि वो इन लोगों के लिए कुछ करेंगे। उन्होंने इन लोगों को अपने साथ जोड़ना शुरू किया। फ़ैसला किया कि इनकी हक़ की लड़ाई इनकी तरफ़ से वो लड़ेंगे और आज उनके साथ 17,000 लोग जुड़ गए हैं। कूड़ा बीनने वालों को अपने साथ एकजुट कर शशि भूषन ने सरकार पर दबाव बनाया कि वो इन्हें इनकी सुरक्षा के लिए सुविधाएं मुहैया कराये। उनकी मेहनत रंग भी लायी। साल 2007 में पर्यावरण मंत्रालय ने 5000 कूड़ा बीनने वालों को यूनिफॉर्म और लोगो भी दिया पर शशि एक स्थाई उपाय सब के लिए चाहते हैं।
ये लोग हमारी शहरी आबादी का लगभग एक प्रतिशत है, जिनमें कचरा बीनने वाले, अटाले और कबाड़ी शामिल हैं, जिससे वो अपनी जीविका चलाते आ रहे है। हालांकि इस धंधे में उनका निजी स्वार्थ ज़रूर है जहां चंद पैसे कमाने के लिए वो अपना समय, मेहनत और अनुभव के बलबूते पर अपना स्वास्थ्य दांव पर लगा देते हैं। पर इस कूड़े बीनने की प्रक्रिया से वो पर्यावरण के सच्चे साथी भी बनते हैं। कूड़े को अलग अलग बिन कर यह रीसाइकिल के लिए दे देते हैं। पर कभी सोचा है पर्यावरण को साफ़ रखने के लिए इनको किस हद तक जाना पड़ता है।
कचरा बीनने वाले 90 प्रतिशत से ज्यादा कचरे की छंटाई कर देते हैं। यानी कूड़े को कागज़, प्लास्टिक, बोतल ,मेटल में अलग कर ये बड़े ठेकेदारों को बेचते हैं जो आगे जाकर रीसाइकिल हो जाता है और इस से MCD का कूड़ा उठाने का 6 लाख का रोज़ का खर्चा भी ये लोग बचा देते हैं।
जापान जैसे विकसित देशों में जहां कूड़े को शुरुआत से ही 8 अलग तरीकों में अलग कर दिया जाता है वहीं दूसरी तरफ़ हमारे देश में घर-घर कूड़ा जमा करने के कारण सारे कूड़े को अलग करने का बोझ कूड़ा बीनने वालों पर पड़ता है। पर क्या आप जानते हैं कूड़ा अलग करने में इनके स्वास्थ पर क्या असर पड़ता है। दिन भर यह लोग कचरा बीनते हैं और गंदगी के माहौल में रहते हैं जिसके कारण रोग पनपने की संभावना इनमें ज़्यादा रहती है। खाना और पीने के पानी की गंदगी के कारण पीलिया, गेस्टोएन्ट्राइटिस, ख़ून की कमी और लिवर का ठीक से काम न करना भी आम रोग इन में है।
कोई भी काम छोटा या बड़ा नही होता। अगर कूड़ा बीनने वालों का सहयोग न मिले तो सारे शहर कूड़े के ढेर बन जायेंगे। इनका एक अपना वजूद और पहचान है। अब बस ये हमारे ऊपर है कि हम इन्हें वो इज्ज़त दें या न दें जिस के यह हकदार जन्म से हैं।

कूड़ा बीनने वाली लड़की को सबसे सुंदर लड़की के रूप में चुना गया


चीन के एक लोकप्रिय इंटरनेट पोर्टल ने कूड़ा बीनने वाली एक तिब्बती लड़की को एक वीडियो में शंघाई एक्सपो में इधर उधर फेंकी बोतलों को चुनते हुए देखे जाने के बाद सबसे सुंदर लड़की घोषित किया है.
साइना.कॉम पर अपना वीडियो आने के बाद भूकंप प्रभावित किनघई इलाके की निवासी ड्रोल्मा चुत्सो (15) लोकप्रिय हो गयी और उसे एक्सपो की सबसे सुंदर लड़की के रूप में चुन लिया गया.
चुत्सो की पहचान उद्घाटित होने के बाद कई लोगों ने उसके चेहरे मोहरे की जमकर सराहना की. वह उन 3000 गरीब किशोर-किशोरियों में एक थी जो मुफ्त में शंघाई और एक्सपो देखने आए थे.
पर्यावरण को स्वच्छ रखने के उसके प्रयास की एक्सपो में सभी ने सराहना की. इस एक्सपो में भारत समेत 180 देशों ने हिस्सा लिया था.

सफाई सेना में आपका स्वागत है


सफाई सेना में आपका स्वागत है हम कौन हैं? सफाई सेना का अर्थ है स्वच्छकारों की सेना। हम कूड़ा बीनने वालों, दरवाजों पर जाकर कूड़ा एकत्र करने वालों, फेरीवालों और अन्य छोटे खरीदारों, छोटे कबाड़ डीलरों और अन्य प्रकार के रिसाइकिलरों का एक पंजीकृत समूह हैं। सफाई सेना का दूरदर्शी स्वप्न (विज़न) यह है कि कूड़े का प्रबंधन करने वाले वयस्कों को उनका कार्य पर्यावरण अनुकूल उन्नत बनाने में अवश्य सक्षम होना चाहिए, जिसका अर्थ है कि पर्यावरण हेतु बेहतर होने के अतिरिक्त, हमारा कार्य सुरक्षित, सम्मानित, मान्यताप्राप्त और हमारे लिए स्वच्छ होना चाहिए। हमारा स्वप्न यह भी है कि हमारे बच्चे कूड़ा बीनने वाले बनने के बजाय स्कूल जाएं। हम संगठित क्यों हुए? हम अपने विज़न को वास्तविकता में बदलने, और सरकार, जनता और अपशिष्ट हो जाने वाली सामग्रियों के उत्पादकों द्वारा एक महत्त्वपूर्ण नगरीय कार्यकर्ता के रूप में मान्यता दिए जाने हेतु पक्षसमर्थन के लिए संगठित हुए। हम मानते हैं कि संगठित होकर हमारी आवाज हमारे अपने नगरों और पूरे देश में, तथा पूरे विश्व में जहां हमारे जैसे 20 मिलियन लोग रिसाइकिलरों के रूप में कार्य करते हैं, अधिक प्रभावशाली ढंग से, तथा अधिक लोगों द्वारा सुनी जा सकेगी। हमारा संक्षिप्त इतिहास सफाई सेना, एक पुरानी एसोसिएशन का नया नाम है। हम आरएसएसएस या राष्ट्रीय सफाई सेवा संगठन के रूप में एकजुट हुए थे। हालांकि हमें प्रायः अन्य, अधिक जाने-माने संगठनों से जोड़कर देखा जाता था जिनसे हमारा कोई संबंध नहीं था। इसके अतिरिक्त, अनेक सदस्य महसूस करते थे कि यह अन्यथा भी एक अच्छा नाम नहीं था। इसलिए, हम अन्य नाम पर सहमत हुए। आरएसएसएस की शुरूआत 2001 में हुई। सफाई सेना ने सरकार से दो वर्ष संघर्ष करने के बाद खुद को 2009 में पंजीकृत कराया, क्योंकि हमारा नाम पहले समितियों के रजिस्ट्रार को स्वीकार्य नहीं था।

Monday, 28 April 2014

ABOUT US
Global Sanitation & other Services Private Limited, was established with the objective of providing services and expertise for various cleaning and housekeeping requirements like dusting, sweeping, mopping, garbage removal, scrubbing, rinsing, periodical requirements of thorough cleaning, washing, brass/chrome polishing, floor scrubbing, vacuum cleaning, high level cleaning, deep cleaning, dry and wet cleaning, sofa/carpet shampooing, cleaning of lamps and furniture items, facade cleaning and other facilities management services etc. as per the need of any facilities, organizations and/or business houses like office, hotels, shopping malls, call centers & guesthouses, residential & farm houses including horticulture and gardening of plants, lawns, and to maintain hygienic and clean atmosphere in the buildings, offices, plants, factories, houses. The process of waste management is carried out through collection, segregation, transportation and recycling of recyclable waste, both industrial and municipal solid waste. We also have expertise in rendering security services in all spheres and areas, viz., provision of security guards, staff and management requirement, training, skill development and placement of security personals. These services are provided to various government and foreign institutions, embassies, corporate houses, firms, individuals, residential houses etc. We can act as security consultants, advisors and security contractors.

दुनिया में दुर्लभ व अमूल्य है ईश्वरीय खजाना





हममें से अधिकतर लोग आज जिंदगी के मूल्यवान ढेर से कूड़ा बीनने ही जैसा काम कर रहे हैं। इनको जिंदगी गुजारने के लिए पैसे तो मिल रहे हैं, परंतु उनकी आवश्यकताओं की लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त होने से सच्ची भांति नहीं महसूस हो पाती। और इस तरह आदमी हर समय और अमीर बनने के तरीके खोजा करता है। नतीजन, लोग भौतिक वादी रूप से अधिक महात्वाकांक्षी होते जा रहे हैं।


एक बार की बात है कि एक आदमी कूड़े से रद्दी-कागज व प्लास्टिक आदि बीनता व कबाड़ी को बेचकर अपने परिवार का पालन-पोषण किया करता था। एक दिन वह कूड़े से कागज आदि बीन रहा था, उसी समय एक संन्यासी उसके पास आया और उससे पूछने लगा-यह तुम क्या कर रहे हो? कूड़ा बीनने वाले ने संन्यासी से कहा कि वह कबाड़ी को चीजें बेचता है, जिससे उसके घर का गुजारा चलता है। संन्यासी ने कहा कि यहां से कुछ ही दूर पर कई कीमती वस्तुएं जैसे लोहा व एल्युमीनियम आदि पड़े रहते हैं, तुम उन्हें उठाकर क्यों नहीं बेचते! उससे तुम्हें ज्यादा पैसे मिल सकते हैं। इसके बाद से कूड़ा बीनने वाले की जिंदगी ही बदल गई। क्योंकि जहां वह एक दिन में बड़ी मुश्किल से कुछ ही पैसे कमा पाता था, वहां कीमती चीजें बेचने से उसे अच्छे पैसे मिल जाते थे। इस प्रकार उसकी जिंदगी अच्छी तरह चलने लगी व उसका परिवार भी अब पहले से कहीं अधिक खुशहाल था। देखा जाए तो हममें से अधिकतर लोग आज जिंदगी के मूल्यवान ढेर से कूड़ा बीनने ही जैसा काम कर रहे हैं। इनको जिंदगी गुजारने के लिए पैसे तो मिल रहे हैं, परंतु उनकी आवश्यकताओं की लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त होने से सच्ची भांति नहीं महसूस हो पाती। और इस तरह आदमी हर समय और अमीर बनने के तरीके खोजा करता है। नतीजन, लोग भौतिक वादी रूप से अधिक महात्वाकांक्षी होते जा रहे हैं। कूड़ा बीनने वाले की कहानी भी बिल्कुल ऐसी ही है। कीमती चीजों को बेचने से उसका भी स्तर ठीक हो गया था। वह पहले से अधिक धनवान भी हो गया। पंरतु, उसे पैसे की भूख और अधिक बढ़ गई थी। उसे भी इतने से संतुष्टि नहीं हुई। एक दिन फिर वही संन्यासी उस व्यक्ति से मिला। उसकी संपन्नता देखते हुए उसका हालचाल पूछा-कि अब तो आप खुश हैं, आपका काम ठीक से चल रहा है! अब तो आप बड़े व्यापारी हो गये हैं। व्यापारी नें कहा कि महाराज! आप तो बड़े जानकार हैं, जल्दी से मुझे करोड़पति बनने का और कोई रास्ता बताइये। इस समय मैं संतुष्टि व भांति का अनुभव नहीं कर पा रहा हंू। संन्यासी ने कहा कि कोई बात नहीं, मैं तुम्हें अब उस जगह का पता बताता हंू, जहां पर सबसे मूल्यवान व कीमती चीजें मिलती हैं। सोना, चांदी, हीरा व मोती का खजाना है वहां। जिससे तुम बहुत जल्दी अमीर व करोड़पति बन सकते हो। उस व्यापारी की खुशी का तो ठिकाना ही न रहा। उसने जल्दी ही उस जगह का पता लगाकर काम चालू कर दिया। धीरे-धीरे करके वह अब सोने व कीमती आभूषणों का बहुत बड़ा सेठ हो गया। अब तो उसके पास कई बड़े-बड़े बंगले व आलीशान गाडिय़ां व दर्जनों नौकर हमेशा उसके आगे-पीछे घूमते रहते। इस तरह से सेठ के पास करोड़ों रुपये की संपदा इकट्ठा हो गई थी। परंतु, उसकी मानसिक स्थिति पहले से कहीं अधिक खराब हो चुकी थी। इतनी बड़ी संपदा का रखरखाव करना उसे बड़ा मुश्किल लग रहा था। चोरों का भी डर था उसे, व्यापार में भी नुकसान होने का भय लगा रहता था। उसके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी, और न ही अब कोई चाहत भी। लेकिन, मन हमेशा अशांत व परेशान रहता। मन की दशा भी यही है कि धनवान बन जाने की अपार इच्छा व धन संचय के लिए हम प्रयासरत रहते हैं। कितना भी धन मिल जाने या हो जाने पर भी मन नहीं मानता। मन और ज्यादा की मांग हमेशा करता है, जल्दी से जल्दी अमीर या करोड़पति हो जाना चाहता है। उसे लगता है कि खूब, भरपूर पैसा व संपदा के मालिक होने पर ज्यादा सुख व शांति मिलती है। परंतु, ऐसा नहीं होता, अगर ऐसा होता तो कूड़ा बीनने वाला व्यापारी बना, फिर बड़ा सेठ हो जाता है। अब उसके पास सब कुछ है, लेकिन असली शांति की तलाश उसकी अब भी बाकी है। नियति व संयोग से कई वर्षों के बाद एक दिन फिर वही संन्यासी उसी व्यापारी सेठ से अचानक टकरा जाता है। सेठ तुरंत उसके पैरों पर गिरकर कहता है- महाराज! कुछ करिये, मुझे शांति नहीं मिल पा रही। मैं बहुत परेशान हो चुका हंू। संन्यासी ने झट कहा-चलो, अब मैं तुम्हें दुनिया के सबसे बहुमूल्य व अमूल्य खजाने का पता बताता हूं। व्यापारी सेठ बोला-महाराज! नहीं, मुझे अब कोई खजाना नहीं चाहिए, मैं इन सबसे तंग आ गया हंू। संन्यासी नें कहा कि मैं तुम्हारी स्थिति समझ चुका हूं। अभी तक मैंने तुम्हें सभी भौतिक खजानों के पते बताये हैं। अब मैं तुम्हें ईश्वरीय खजाने का पता बताता हूं, जो असली खजाना है। जहां पर ही तुम्हें सच्ची शांति व संतुष्टि का अनुभव होगा। उस खजाने को पाने के लिए तुम्हें कहीं और जाने की भी आवश्यकता नहीं क्योंकि वह अमूल्य खजाना तुम्हारे अंदर ही छिपा है, और उस खजाने का लुट जाने का भी डर नहीं। इससे बड़ी दौलत व खजाना पूरी दुनिया में नहीं है। सेठ ने संन्यासी को दंडवत प्रणाम किया व नये खजाने की खोज के लिए चल दिया।

हमने ही जमा किये हैं कचरे के ढेर

पंकज चतुर्वेदी लेखक


बीते दशकों में लोगों की बढ़ती आय व जीवन-स्तर ने भारत में कूड़े का उत्सर्जन लगातार बढ़ाया है.
 और अब कूड़ा सरकार व समाज दोनों के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है. भले ही हम कूड़े को अपने पास फटकने नहीं देना चाहते हों, लेकिन सचाई यही है कि कूड़ा हमारी गलतियों या बदलती आदतों के कारण ही दिन-दुगना, रात-चौगुना बढ़ रहा है. वह प्लास्टिक कूड़ा जिसे नष्ट करना संभव नहीं है; अणु बम से भी ज्यादा खतरनाक है और आने वाली कई पीढ़ियों के लिए बड़ा संकट है.
नेशनल इनवायरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, नागपुर के मुताबिक देश में हर साल 44 लाख टन खतरनाक कचरा निकल रहा है.  देश में औसतन प्रति व्यक्ति 20-60 ग्राम कचरा हर दिन निकलता है. इसमें आधे से अधिक कागज, लकड़ी या पुट्ठा होता है, जबकि 22 फीसद कूड़ा-कबाड़ा, घरेलू गंदगी होती है. कचरे का निबटान पूरे देश के लिए समस्या बनता जा रहा है. दिल्ली नगर निगम कई-कई सौ किलोमीटर दूर तक कचरे का डंपिंग ग्राउंड तलाश रहा है. विचारणीय है कि इतने कचरे को एकत्र करना, उसे दूर तक ढोकर ले जाना कितना महंगा व जटिल काम है.
यह सरकार भी मानती है कि देश के कुल कूड़े का महज पांच फीसद ठीक से निस्तारित हो पाता है. राजधानी दिल्ली का 57 फीसद कूड़ा तो परोक्ष या अपरोक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है. कागज, प्लास्टिक, धातु जैसा बहुत-सा कूड़ा-कचरा बीनने वाले जमा कर रिसाइक्लिंग वालों को बेच देते हैं. सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर आदि कुछ समय में सड़-गल जाते हैं. इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है.
असल में, कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है. अभी कुछ साल पहले तक स्याही वाला फाउंटेन पेन प्रयोग होता था, उसके बाद ऐसे बाल-पेन आए जिनकी केवल रीफिल बदलती थी. आज बाजार में ऐसे पेनों का चलन है जो खत्म होने पर फेंक दिए जाते हैं. देश की बढ़ती साक्षरता दर के साथ ऐसे पेनों का इस्तेमाल और उनका कचरा बढ़ता गया है.
नतीजा यह कि तीन दशक पहले एक व्यक्ति साल भर में बमुश्किल एक पेन खरीदता था, जबकि आज औसतन हर साल एक दर्जन पेनों की प्लास्टिक प्रति व्यक्ति बढ़ रही है. इसी तरह शेविंग-किट में पहले स्टील या उससे पहले पीतल का रेजर होता था, जिसमें केवल ब्लेड बदले जाते थे, जबकि आज हर हफ्ते कचरा बढ़ाने वाले ‘यूज एंड थ्रो’ वाले रेजर ही बाजार में मिलते हैं. अभी कुछ साल पहले दूध भी कांच की बोतलों में आता था या लोग अपने बर्तन लेकर डेयरी जाते थे.
आज दूध के अलावा पीने का पानी भी प्लास्टिक थैलियों-बोतलों में मिल रहा है. अनुमान है कि पूरे देश में हर रोज चार करोड़ दूध की थैलियां और दो करोड़ पानी की बोतलें कूड़े में फेंकी जाती हैं. मेकअप का सामान, डिस्पोजेबल बरतनों का प्रचलन, बाजार से पोलीथीन बैग्स में सामान लाना, हर छोटी-बड़ी चीज की पैकिंग; ऐसे ही न जाने कितने तरीके हैं, जिनसे हम कूड़ा-कबाड़  बढ़ा रहे हैं. घरों में सफाई और खुशबू के नाम पर बढ़ रहे साबुन, स्प्रे व अन्य रसायनों के चलन ने भी अलग किस्म के कचरे को बढ़ाया है.
सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कंप्यूटरों और मोबाइल का है. इसमें पारा, कोबाल्ट, और न जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं. एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलो ग्राम होता है. इसमें 1.90 किग्रालेड और 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता हे, शेष हिस्सा प्लास्टिक होता है.
इनमें से अधिकांश सामग्री गलती-सड़ती नहीं हैं और जमीन के संपर्क में आकर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने का काम करती है. ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों व बेकार मोबाइलों से भी उपज रहा है. भले ही अदालतें समय-समय पर फटकार लगाती रही हों, लेकिन अस्पतालों से निकलने वाले कूड़े का सुरक्षित निबटान भी दिल्ली, मुंबई व अन्य महानगरों से लेकर छोटे कस्बों तक संदिग्ध व लापरवाहीपूर्ण रहा है. राजधानी दिल्ली में कचरे का निबटान अब बड़ी समस्या बनता जा रहा है.
अभी हर रोज सात हजार मीट्रिक टन कचरा उगलने वाला यह महानगर 2021 तक 16 हजार मीट्रिक टन कचरा उत्पन्न करेगा. दिल्ली के अपने कूड़-ढलाव पूरी तरह भर गए हैं और आसपास 100 किमी दूर तक कोई नहीं चाहता कि उनके गांव-कस्बे में कूड़े का अंबार लगे. कहने को दिल्ली में दो साल पहले पॉलीथीन की थैलियों पर रोक लगाई जा चुकी है, लेकिन आज भी प्रतिदिन 583 मीट्रिक टन कचरा प्लास्टिक का ही है. इलेक्ट्रानिक और मेडिकल कचरा भी यहां की जमीन और जल में जहर घोल रहा है.
स्पष्ट है कि शहरी क्षेत्रों के लिए कूड़ा अब नए तरह की आफत बन रहा है. हालांकि सरकार उसके निबटान के लिए तकनीकी व अन्य प्रयास कर रही है, लेकिन प्रयास तो कचरे को कम करने के लिए होना चाहिए. प्लास्टिक का कम से कम इस्तेमाल, पुराने कंप्यूटर व मोबाइल के आयात पर रोक तथा बेकार उपकरणों को निबटान के लिए उनके विभिन्न अवयवों को अलग करने की व्यवस्था करना बेहद जरूरी है.
सामानों की मरम्मत करने वाले हाथों को तकनीकी रूप से सशक्त बनाने व उन्हें जागरूक करने से निष्प्रयोज्य उपकरणों को फेंकने की प्रवृति पर रोक लग सकती है. वाहनों के नकली व घटिया पार्ट्स की बिक्री पर कड़ाई भी कचरे को रोकने में मददगार होगी. कचरा-नियंतण्रऔर उसके निबटान की शिक्षा स्कूली स्तर पर अनिवार्य बनाना भी जरूरी है. कचरे को कम करने और उसके निबटान प्रबंधन के लिए दीर्घकालीन योजना निर्माण  को उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए.

कूड़ा बीनने वालों को मिली नई संभावनाएं


ई दुनिया, 23 फरवरी 2012
नगर निगम व पुलिस से संपर्क स्थापित कर कूड़ा बीनने वालों को परेशान करने वाली प्रवृत्तियों पर काफी हद तक रोक लगाई जा सकी। महिलाओं को अपने बच्चों को इस कार्य में लगाने से रोकने व उन्हें स्कूल में भेजने के लिए प्रोत्साहित किया गया व इसके लिए उन्हें कुछ सहायता भी दी गई। इस तरह इस कार्य से बाल मजदूरी पहले की अपेक्षा काफी कम हुई। पुणे व पिंपरी नगर-निगम ने कूड़ा बीनने वालों के लिए स्वास्थ्य बीमा योजना स्वीकार की तथा इसके लिए प्रीमियम भी नगर-निगम की ओर से ही भरा जाता है।
वैसे तो हमारे शहरों में अधिकांश कूड़ा बीनने वालों का जीवन बहुत दर्दनाक है और उनके हितों की बहुत उपेक्षा हुई है, पर हाल के समय में बदलाव के कुछ संकेत भी मिले हैं। अब इस बारे में यह समझ बनने लगी है कि कूड़ा बीनने वाले कई कठिनाइयां व उपेक्षा सहते हुए भी समाज में मूल्यवान योगदान दे रहे हैं। इस समझ के आधार पर कुछ ऐसे प्रयास आरंभ हुए हैं जो कूड़ा बीनने वालों की आजीविका को बेहतर बनाना चाहते हैं व साथ ही इन प्रयासों को पर्यावरण की रक्षा व स्वच्छता-सफाई के व्यापक उद्देश्यों से जोड़ना चाहते हैं।ऐसा ही एक उम्मीद भरा प्रयास पुणे व आसपास के क्षेत्र में "कागद कछ पत्र कष्टकारी पंचायत" नामक कूड़ा बीनने वालों के संगठन की ओर से हो रहा है। इस संगठन के आरंभ होने से पहले यहां कू़ड़ा बीनने वालों की स्थिति बहुत दर्दनाक थी।

ये मजदूर पूरी तरह उपेक्षित थे। उन्हें समय-समय पर पुलिस व चौकीदार परेशान करते थे। मेहनत से एकत्रित किए गए कूड़े की बिक्री के समय व्यापारी कम तोलकर उन्हें कम पैसे देते थे। अधिकांश कार्य महिलाएं करती थीं पर प्रायः बच्चे भी उनके साथ आ जाते थे जिससे वे शिक्षा से वंचित हो जाते थे। इन स्थितियों ने सामाजिक कार्यकर्ता मोहन नानावड़े को परेशान किया व उन्होंने क्षेत्र के सबसे वरिष्ठ ट्रेड यूनियन नेता बाबा आधव से अपील की कि इन मजदूरों के लिए संगठन बनाना जरूरी है। अपनी व्यस्तताओं के बावजूद बाबा आधव ने इस कार्य को अपना पूरा समर्थन व प्रोत्साहन दिया, जिससे कम समय में ही नानावड़े के प्रयास को अच्छी सफलता मिलने लगी। नगर निगम व पुलिस से संपर्क स्थापित कर कूड़ा बीनने वालों को परेशान करने वाली प्रवृत्तियों पर काफी हद तक रोक लगाई जा सकी।

महिलाओं को अपने बच्चों को इस कार्य में लगाने से रोकने व उन्हें स्कूल में भेजने के लिए प्रोत्साहित किया गया व इसके लिए उन्हें कुछ सहायता भी दी गई। इस तरह इस कार्य से बाल मजदूरी पहले की अपेक्षा काफी कम हुई। पुणे व पिंपरी नगर-निगम ने कूड़ा बीनने वालों के लिए स्वास्थ्य बीमा योजना स्वीकार की तथा इसके लिए प्रीमियम भी नगर-निगम की ओर से ही भरा जाता है। सदस्यों के अपने प्रीमियम से जीवन बीमे की व्यवस्था भी की गई। इसके अतिरिक्त साहूकारों के ऊंचे ब्याज के कर्ज से अपने सदस्यों की रक्षा के लिए इस संगठन ने अपनी सहकारी साख समिति का गठन किया जिससे अन्य सदस्यों को आसानी से व कम ब्याज पर कर्ज मिल जाता है।

रद्दी की बिक्री के लिए एक उपक्रम की स्थापना भी संगठन की ओर से की गई। इन विभिन्न सार्थक गतिविधियों के बीच संगठन की सदस्य संख्या बढ़ कर 6000 के आसपास पहुंच गई है। इस संगठन ने राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन भी बनाए हैं जिससे कि कूड़ा बीनने वाले मजदूरों की भलाई के प्रयासों को और व्यापक बनाया जा सके। यह एक ऐसा मॉडल है जो आजीविका बेहतर करने, शहर को स्वच्छ रखने व पर्यावरण को सुधारने के उद्देश्यों को एक साथ जोड़ता है। उम्मीद है कि इस तरह के प्रयासों को बढ़ती मान्यता मिलेगी व पुणे व आसपास के क्षेत्र के यह मूल्यवान अनुभव अधिक व्यापक स्तर पर अपनाए जाएंगे।