कूड़ा बीनते
अपनी जिंदगी के 30 साल उसने कूड़ा बीनते हुए बिताए थे। बचपन से ही वह अपनी झोपड़ी के आसपास कूड़ा बीनने में अपनी मां की मदद करती थी। इसके बदले उसे मां से प्रशंसा भी मिलती थी। चूंकि वह इसी माहौल में पली-बढ़ी थी, तो उसे लगता था कि उसका जन्म इसीलिए हुआ है और यही उसके जीने का एकमात्र जरिया है। जब तक वह दुनिया की बाकी चीजों को समझ पाती, उसके व्यक्तिगत विकास के लिए देर हो चुकी थी।
उसके परिवार में माता-पिता के अलावा पांच बहनें थीं। जब वह नौ साल की थी, तब उसका परिवार महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित जिले जालना से मुंबई चला आया और कूड़ा बीनकर गुजर-बसर करने लगा। आज मुंबई के चेंबूर इलाके में स्थित रमाबाई अंबेडकर मैटरनिटी होम के एक छोटे-से ऑफिस में बैठी 45 वर्षीय सुशीला साबले घर जाने से पहले अपना काम निपटाने में लगीं दूसरी महिलाओं जैसी ही दिखती हैं। फर्क इतना है कि इस ऑफिस में बैठकर वे परिसर भगिनी विकास संघ का संचालन करती हैं। मुंबई और ठाणे में सक्रिय इस संगठन के साथ 180 स्वसहायता समूह तथा तीन हजार महिलाएं जुड़ी हुई हैं। यहां बैठकर वे कूड़ा बीनने वाली महिलाओं के स्वसहायता समूहों से मिलती हैं और उनकी निजी समस्याएं सुलझाती हैं। यदि ये महिलाएं सुशीला की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखती हैं तो इसकी वजह यह है कि 12 साल पहले तक वे भी कूड़ा बीनने का ही काम करती थीं।
सुशीला के जीवन में नाटकीय बदलाव वर्ष 1998 में आया, जब वे स्त्री मुक्ति संगठन के संपर्क में आईं। यह गैर-सरकारी संगठन सूखे और गीले कूड़े को मूल स्थान पर ही अलग करने के लिए कूड़ा बीनने वाली महिलाओं को स्वसहायता समूहों के रूप में संगठित कर रहा था। सूखे कूड़े को वेंडरों के हाथ बेचा जाता था, जबकि गीले कूड़े को प्राकृतिक खाद में बदला जाता था। संगठन को अनपढ़ सुशीला में नेतृत्व की क्षमता नजर आई और उसे एक स्वसहायता समूह का नेतृत्व करने के लिए तैयार किया गया। 2001 में सुशीला ने कूड़ा बीनने का काम बंद कर दिया और दूसरी महिलाओं के साथ काम करने लगीं। अब यह संगठन मुंबई और ठाणे की स्थानीय निकायों पर बड़ी कंपनियों तथा हाउसिंग सोसाइटीज में जीरो-गार्बेज पॉलिसी लागू करने का दबाव बना रही है।
भारत में कुछेक हाउसिंग सोसाइटीज और बहुराष्ट्रीय संगठनों ने पहले से ही जीरो-गार्बेज पॉलिसी अपना रखी है, लेकिन देश के बाकी हिस्सों में अभी इस दिशा में कदम उठाया जाना बाकी है। सुशीला की इको-फ्रेंडली पहल ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई है और वर्ष 2009 में कोपेनहेगन में हुए गार्बेज वर्कर्स कॉन्फ्रेंस में उन्हें भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया था। यह पहला मौका था, जब उन्होंने पासपोर्ट के लिए आवेदन किया, एयरपोर्ट के अंदर गईं, हवाई जहाज में यात्रा की और सितारा होटल में ठहरीं। 3000 से ज्यादा कचरा प्रबंधन विशेषज्ञों के बीच उन्होंने मराठी में भाषण दिया, जिसका श्रोताओं के लिए अंग्रेजी में अनुवाद किया गया। इसके बाद वे तीन और सम्मेलनों, बीजिंग (२०१०), डरबन (२०११) और रियो डी जेनेरियो (२०१२), में शामिल हुईं, जहां उन्होंने भारत में कचरा-निष्पादन के तरीकों के बारे में बताया। पृथ्वी की हरियाली को बनाए रखने के लिए उन्होंने कचरा निष्पादन के कई नए तरीकों की भी चर्चा की। निजी जीवन में भी सुशीला को काफी संघर्ष करना पड़ा। दो साल बाद ही उनकी शादी टूट गई, क्योंकि उनका पति परिवार के खर्च के लिए एक पैसा नहीं कमाता था। घर में खाने के लिए कुछ नहीं होता था और उन्हें दोबारा कूड़ा बीनने के लिए जाना पड़ा। इसलिए उन्होंने शादी तोड़ दी। घर छोड़ते समय वह छह महीने की गर्भवती थीं, लेकिन गरीबी के बीच उन्हें पति के साथ रहने का कोई कारण नहीं नजर आया। अपने दम पर उन्होंने अपने बेटे को पढ़ाया और उसे मुंबई यूनिवर्सिटी से बैचलर इन मैनेजमेंट स्टडीज की डिग्री दिलाई। आज वह एक निजी कंपनी के लिए काम करता है। सुशीला के जीवन का एकमात्र लक्ष्य कूड़ा बीनने वालों के जीवन को बदलना है।
फंडा यह है कि...
हर कोई फर्श से अर्श पर नहीं पहुंच सकता, लेकिन आत्मविश्वास हो तो इतना तय है कि आप घटिया जीवन जीने को मजबूर नहीं होंगे।
अपनी जिंदगी के 30 साल उसने कूड़ा बीनते हुए बिताए थे। बचपन से ही वह अपनी झोपड़ी के आसपास कूड़ा बीनने में अपनी मां की मदद करती थी। इसके बदले उसे मां से प्रशंसा भी मिलती थी। चूंकि वह इसी माहौल में पली-बढ़ी थी, तो उसे लगता था कि उसका जन्म इसीलिए हुआ है और यही उसके जीने का एकमात्र जरिया है। जब तक वह दुनिया की बाकी चीजों को समझ पाती, उसके व्यक्तिगत विकास के लिए देर हो चुकी थी।
उसके परिवार में माता-पिता के अलावा पांच बहनें थीं। जब वह नौ साल की थी, तब उसका परिवार महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित जिले जालना से मुंबई चला आया और कूड़ा बीनकर गुजर-बसर करने लगा। आज मुंबई के चेंबूर इलाके में स्थित रमाबाई अंबेडकर मैटरनिटी होम के एक छोटे-से ऑफिस में बैठी 45 वर्षीय सुशीला साबले घर जाने से पहले अपना काम निपटाने में लगीं दूसरी महिलाओं जैसी ही दिखती हैं। फर्क इतना है कि इस ऑफिस में बैठकर वे परिसर भगिनी विकास संघ का संचालन करती हैं। मुंबई और ठाणे में सक्रिय इस संगठन के साथ 180 स्वसहायता समूह तथा तीन हजार महिलाएं जुड़ी हुई हैं। यहां बैठकर वे कूड़ा बीनने वाली महिलाओं के स्वसहायता समूहों से मिलती हैं और उनकी निजी समस्याएं सुलझाती हैं। यदि ये महिलाएं सुशीला की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखती हैं तो इसकी वजह यह है कि 12 साल पहले तक वे भी कूड़ा बीनने का ही काम करती थीं।
सुशीला के जीवन में नाटकीय बदलाव वर्ष 1998 में आया, जब वे स्त्री मुक्ति संगठन के संपर्क में आईं। यह गैर-सरकारी संगठन सूखे और गीले कूड़े को मूल स्थान पर ही अलग करने के लिए कूड़ा बीनने वाली महिलाओं को स्वसहायता समूहों के रूप में संगठित कर रहा था। सूखे कूड़े को वेंडरों के हाथ बेचा जाता था, जबकि गीले कूड़े को प्राकृतिक खाद में बदला जाता था। संगठन को अनपढ़ सुशीला में नेतृत्व की क्षमता नजर आई और उसे एक स्वसहायता समूह का नेतृत्व करने के लिए तैयार किया गया। 2001 में सुशीला ने कूड़ा बीनने का काम बंद कर दिया और दूसरी महिलाओं के साथ काम करने लगीं। अब यह संगठन मुंबई और ठाणे की स्थानीय निकायों पर बड़ी कंपनियों तथा हाउसिंग सोसाइटीज में जीरो-गार्बेज पॉलिसी लागू करने का दबाव बना रही है।
भारत में कुछेक हाउसिंग सोसाइटीज और बहुराष्ट्रीय संगठनों ने पहले से ही जीरो-गार्बेज पॉलिसी अपना रखी है, लेकिन देश के बाकी हिस्सों में अभी इस दिशा में कदम उठाया जाना बाकी है। सुशीला की इको-फ्रेंडली पहल ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई है और वर्ष 2009 में कोपेनहेगन में हुए गार्बेज वर्कर्स कॉन्फ्रेंस में उन्हें भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया था। यह पहला मौका था, जब उन्होंने पासपोर्ट के लिए आवेदन किया, एयरपोर्ट के अंदर गईं, हवाई जहाज में यात्रा की और सितारा होटल में ठहरीं। 3000 से ज्यादा कचरा प्रबंधन विशेषज्ञों के बीच उन्होंने मराठी में भाषण दिया, जिसका श्रोताओं के लिए अंग्रेजी में अनुवाद किया गया। इसके बाद वे तीन और सम्मेलनों, बीजिंग (२०१०), डरबन (२०११) और रियो डी जेनेरियो (२०१२), में शामिल हुईं, जहां उन्होंने भारत में कचरा-निष्पादन के तरीकों के बारे में बताया। पृथ्वी की हरियाली को बनाए रखने के लिए उन्होंने कचरा निष्पादन के कई नए तरीकों की भी चर्चा की। निजी जीवन में भी सुशीला को काफी संघर्ष करना पड़ा। दो साल बाद ही उनकी शादी टूट गई, क्योंकि उनका पति परिवार के खर्च के लिए एक पैसा नहीं कमाता था। घर में खाने के लिए कुछ नहीं होता था और उन्हें दोबारा कूड़ा बीनने के लिए जाना पड़ा। इसलिए उन्होंने शादी तोड़ दी। घर छोड़ते समय वह छह महीने की गर्भवती थीं, लेकिन गरीबी के बीच उन्हें पति के साथ रहने का कोई कारण नहीं नजर आया। अपने दम पर उन्होंने अपने बेटे को पढ़ाया और उसे मुंबई यूनिवर्सिटी से बैचलर इन मैनेजमेंट स्टडीज की डिग्री दिलाई। आज वह एक निजी कंपनी के लिए काम करता है। सुशीला के जीवन का एकमात्र लक्ष्य कूड़ा बीनने वालों के जीवन को बदलना है।
फंडा यह है कि...
हर कोई फर्श से अर्श पर नहीं पहुंच सकता, लेकिन आत्मविश्वास हो तो इतना तय है कि आप घटिया जीवन जीने को मजबूर नहीं होंगे।
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