कूड़े के ढेर में कहीं गुम हुईं ये जिंदगियां
शशि भूषन
नई दिल्ली।
राजधानी के विभिन्न इलाकों में कूड़ा बीनने वालों को कूड़े के ढेर में अपनी
दुनिया खोजते आपने देखा होगा। लेकिन समाज में इन्ही लोगों को अक्सर बेरुखी
और शर्मिंदगी से देखा जाता है। हालांकि शायद ही हम ये सोचते हैं कि कूड़ा
बीनकर ये लोग अपनी जिंदगी तो चलाते ही हैं साथ ही पर्यावरण के सच्चे दोस्त
भी हैं। दिल्ली के शशि भूषन इनको मुख्य धारा में लाने के लिए कई सालों से
कोशिश कर रहे हैं।
राजू
कूड़ा बीनने का काम करता है पर क्या किसी को उसके नाम या काम के पहचान से
मतलब है? राजू भोर होते ही पेट भरने के लिए रेल की पटरियों पर रोज़ दर दर
भटकता है। एक ऐसा काम करता है जिसे हर आदमी शक की निगाह से देखता है पर ये
नहीं जानता कि ये जो गन्दगी साफ़ कर रहा है यह उसी की फैलाई हुई है।
रेल
की पटरियों पर लोगों की फेंकी हुई पन्नी, प्लास्टिक, पानी की बोतल, शीशे
की बोतल, कुछ जूठे डब्बे की खोज में रोज़ राजू दर-दर भटकता है। गन्दगी में
हाथ डालता है, सांस लेता है। शायद अब तक उसका शरीर बीमारियों का घर भी बन
चुका हो पर भूख के लिए दिन रात घूमता है। इस आस में की शायद आज कबाड़ी की
दुकान पर ठीक पैसे मिल जायें तो भरपेट खाना खालेगा।
राजू
जैसे लाखों लोग हमारे आस पास रहते हैं काम करते हैं पर क्या कभी हमने इनकी
तरफ़ इज्ज़त की निगाहों से एक बार भी देखा ये वही लोग है जो हमारे मोहल्ले
भर के कूड़े के ढेर को बीनते हैं। पर इस बीच इनको कितनी परेशानियों का
सामना करना पड़ता है उससे शायद हम में से कोई वाकिफ नहीं है। पर एक शख्स है
जिसने दिल्ली के 17,000 कूड़ा बीनने वालों को अपने साथ जोड़ा और उनकी
परेशानियों की आवाज़ बना। उनका नाम है शशि भूषन।
जिन
लोगों ने पर्यावरण को बचाने के लिए अपने स्वास्थ को दाव पर लगा दिया शशि
ने फ़ैसला किया कि वो इन लोगों के लिए कुछ करेंगे। उन्होंने इन लोगों को
अपने साथ जोड़ना शुरू किया। फ़ैसला किया कि इनकी हक़ की लड़ाई इनकी तरफ़ से
वो लड़ेंगे और आज उनके साथ 17,000 लोग जुड़ गए हैं। कूड़ा बीनने वालों को
अपने साथ एकजुट कर शशि भूषन ने सरकार पर दबाव बनाया कि वो इन्हें इनकी
सुरक्षा के लिए सुविधाएं मुहैया कराये। उनकी मेहनत रंग भी लायी। साल 2007
में पर्यावरण मंत्रालय ने 5000 कूड़ा बीनने वालों को यूनिफॉर्म और लोगो भी
दिया पर शशि एक स्थाई उपाय सब के लिए चाहते हैं।
ये
लोग हमारी शहरी आबादी का लगभग एक प्रतिशत है, जिनमें कचरा बीनने वाले,
अटाले और कबाड़ी शामिल हैं, जिससे वो अपनी जीविका चलाते आ रहे है। हालांकि
इस धंधे में उनका निजी स्वार्थ ज़रूर है जहां चंद पैसे कमाने के लिए वो
अपना समय, मेहनत और अनुभव के बलबूते पर अपना स्वास्थ्य दांव पर लगा देते
हैं। पर इस कूड़े बीनने की प्रक्रिया से वो पर्यावरण के सच्चे साथी भी बनते
हैं। कूड़े को अलग अलग बिन कर यह रीसाइकिल के लिए दे देते हैं। पर कभी सोचा
है पर्यावरण को साफ़ रखने के लिए इनको किस हद तक जाना पड़ता है।
कचरा
बीनने वाले 90 प्रतिशत से ज्यादा कचरे की छंटाई कर देते हैं। यानी कूड़े को
कागज़, प्लास्टिक, बोतल ,मेटल में अलग कर ये बड़े ठेकेदारों को बेचते हैं
जो आगे जाकर रीसाइकिल हो जाता है और इस से MCD का कूड़ा उठाने का 6 लाख का
रोज़ का खर्चा भी ये लोग बचा देते हैं।
जापान
जैसे विकसित देशों में जहां कूड़े को शुरुआत से ही 8 अलग तरीकों में अलग कर
दिया जाता है वहीं दूसरी तरफ़ हमारे देश में घर-घर कूड़ा जमा करने के कारण
सारे कूड़े को अलग करने का बोझ कूड़ा बीनने वालों पर पड़ता है। पर क्या आप
जानते हैं कूड़ा अलग करने में इनके स्वास्थ पर क्या असर पड़ता है। दिन भर यह
लोग कचरा बीनते हैं और गंदगी के माहौल में रहते हैं जिसके कारण रोग पनपने
की संभावना इनमें ज़्यादा रहती है। खाना और पीने के पानी की गंदगी के कारण
पीलिया, गेस्टोएन्ट्राइटिस, ख़ून की कमी और लिवर का ठीक से काम न करना भी
आम रोग इन में है।
कोई
भी काम छोटा या बड़ा नही होता। अगर कूड़ा बीनने वालों का सहयोग न मिले तो
सारे शहर कूड़े के ढेर बन जायेंगे। इनका एक अपना वजूद और पहचान है। अब बस ये
हमारे ऊपर है कि हम इन्हें वो इज्ज़त दें या न दें जिस के यह हकदार जन्म
से हैं।
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